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दंड बिन कोई प्रावधान सुरक्षित नहीं ?

काम नहीं तो बातें ह
काम नहीं तो बातें ह
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वैसे भी आजकल कोई राजा हरिशचन्द्र या भरत बनना नहीं चाहता। देश में परिवर्तन की मांग और व्यवस्थाओं में व्याप्त खामियों में सुधार ना चाहने वाले सारी हदें पार कर चुके हैं, फिर भी अपना-पराया की मोह माया में हमारे हुक्मरान-सिरमौर उलझे पड़े हैं।
घर-मोहल्ले से लेकर सरकारी मामलों में घिरे लोग अदालतों में घनचककर बने घूमते दिखते हैं, लेकिन ये दिलासा देने वाला कोई नहीं मिलता की मुकदमे का अंत कब होगा।
कोई भी मामला-बात हो उसमें पक्ष-विपक्ष होता है और ज्यादा ही काढ़ खोज हो तो मध्यस्थ भी साथ होता है। जब किसी मामले में पक्ष-विपक्ष होते हैं तो यकीनन दोषी भी इनमें से कोई होता ही होगा। अब किसी मामले में कोई आरोपी बाइज्जत-सशर्त बरी किया जाता है तो उस मामले में दोषी कौन ये तय करने की भूल बार बार कैसे होती है,ये उलझन आज तलक सरकारी स्तर पर नहीं सुलझी लगती है?
कब कैसे कहां क्यों किसने किया की चटखारे भरी बातें भले ही कागजों को भरने का काम करती होंगी पर किसी व्यवस्था से लाभ पीड़ितों को मिलेगा ये सुनिश्चित नहीं होता लगता है।
किसी भी मामले का इंद्राज करते ही सुनिश्चित हो की किसी एक का दोष निकालेंगे ही और सजा भी दिलवाएंगे। मामलों का निर्णय आता रहता है पर दोषी कौन ये तय नहीं हो पाता है। ऐसे ढील भरे सिस्टम में अर्थ के अनर्थ होते हैं और व्यवस्थाओं का बिगाड़ कोई रोक नहीं पाता ?

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